Radio Vaartaa

अरे भाई बोला , पचास बार बोला। अगर अपनी आवाज़ ही सुननी है, तो टेप कर देते हैं, सुन लेना।  क्या प्रॉब्लम है? लेकिन नहीं!  इतनी आसानी से जान कहाँ छुटने वाली  थी? अपनी आवाज़ सुननी हैऔर आल इन्डिया रेडियो पर ही सुननी है।

खीज कर हमने भी कह दिया  “अगर अपनीआवाज़  सुनने का इतना ही शौक है तो जाओ, आल इन्डिया रेडिओ वालों से मिल कर बोलो, कुछ प्रोग्राम श्रोग्राम रिकॉर्ड कर लें। “

पता नहीं इतिहास में किस के क्या फेमस लास्ट वर्ड्स रहे होंगे। लेकिन ज़रूर कुछ ऐसे ही रहे होंगे । हमारे केस में हमारा इतना कहना था कि बस, मत पूछिए साहब कि हम पर क्या गुज़री!

कभी खाना खाते वक्त, तो कभी रात में सो जाने के बाद, बस एक ही सवाल होता था हमारी श्रीमती जी का – “क्यों जी, कब ले चलियेगा ऐ आई आर वालों के पास?”

एक दिन बड़ी मुश्किल से बॉस और ऑफिस वालों की नज़र से बच कर ले गए हम श्रीमती जी को आल इंडिया रेडियो।

पहला सवाल पूछा गया; “क्या आप गा सकती हैं?”

हम और हमारी श्रीमतीजी ठहरे खानदानी गाना सुनने वाले । गाना गाने का सवाल कभी पैदा ही नहीं हुआ । हमारी श्रीमतीजी की सिट्टी पिट्टी गुम ।

उस दिन तक हम समझ नहीं पाए थे कि बगलें झांकने का क्या मतलब होता है। समझ में आ गया । आखिर श्रीमतीजी के बगल में हम ही तो बैठे थे!

हमें भी काफी झेंप आई। थोड़ी चिन्ता भी थी कि आखिर ऑफिस में यार दोस्त बॉस को इस बहाने कब तक टालते रहेंगे कि “सर, चाय पीने गया है, आता ही होगा। “

लेकिन मन ही मन खुश तो थे ही । बोलने की हमारी हिम्मत कहाँ थी, मगर हम ने सोचा कि “चलो! श्रीमतीजी का अपनी आवाज़ ऐ आईआर पर सुनने का बुखार तो उतरा।”

लेकिन श्रीमतीजी ने भी सुना हुआ था किअलग अलग तरह की हट होती है; जैसे बाल हट; राज हट; श्रीमती हट ! श्रीमतीजी इतनी आसानी से मानने वाली कहाँ थीं ? 

पूछने लगीं , “आपको अंनोंनसर की ज़रूरत है? “

जिस लहज़े से उन्होंने पूछा और जिस किस्म का दुखी चेहरा उस ऐ आई आर के अफसर ने बनाया, अस से हम तो साफ़ समझ गए कि अगर आल इंडिया रेडियो में अंनोंनसर का अकाल भी पड़ जाये, तब भी हमारी श्रीमतीजी को इस शुभ कार्य हेतु आमंत्रित नहीं किया जायेगा।

उस ऐ आई आर के अफसर का हमारी श्रीमतीजी जैसी कई महिलायों से पाला ज़रूर पड़ा होगा। मंजा हुआ खिलाड़ी था।

टका सा जवाब कि, “ज़रूरत नहीं है”, कह कर जाने वाला ही था कि हमारी श्रीमतीजी ने उस को घूरा।

मैं खुद अपनी श्रीमतीजी की क्या तारीफ़ करूँ? इतना ज़रूर कहूंगा कि अगर वो झपटते हुए शेर को घूर कर देख लें तो शेर हवा मे ही रुक जाये। वो अफसर किस खेत की मूली था? बस आउट क्लास्ड समझिए साहब, बिलकुल आउट क्लास्ड!  रुक गया। रुका रहा।

हमारी श्रीमतीजी ने दोहराया। “आपको – किसी – अंनोंनसर – की – ज़रूरत – है ? “

इस बार तो उस बेचारे ने अपनी जान बचाने के लिए कह दिया; “अंनोंनसर   की ज़रूरत तो नहीं है लेकिन यदिआप कोई अच्छा सा लेख लिखकर लाएं तो हम आपकी वार्ता अकोमोडेट करने की कोशिश ज़रूर करेंगे। “

ये कह कर वो अफसर तो भाग गया।

रह गए हम।

उस दिन के बाद हमारे घर में तो केवल एक ही रटन लगी रहती थी।  “अजी सुनते हैं? कोई अच्छा सा लेख लिख दीजीए ना।”

हमको तो वैसे भी ऑफिस में पिछले तीन साल से ए सी आर में ” नोटिंग एण्ड ड्राफटिंग वैरी पुअर ” कह कर टाला जाता रहा है । अम्मा को तीन महीने में एक चिट्ठी अगर लिख दी तो हम समझते हैं कि क्रिएटिव  राइटिंग का कोर्स पूरा कर लिया। 

तो कैसे लिखें हम लेख ? और वो भी अच्छा सा ? 

लेकिन श्रीमतिजी की ज़िद। बहुत टाला । बहुत टाला तो कहना गलत होगा, दरअस्ल  टालने की बहुत कोशिश की ।

बोले हम ” ए आई आर वाले शुद्ध मातृभाषा चाहेंगे- हम खिचड़ी भाषी हैं।”

नहीं मानी।

बोले हम ” ऐ आई आर सुनने वालों को कोई टॉपिकल सब्जेक्ट चाहिए।”

बोलीं ” तो न्यूज़पेपर से पढ़ कर लिख दीजिए।”

हम ने कहा, हम ने कहा, हम ने कहा।  हम कहते रहे और वो हर बात को काटती रहीं। 

फिर साहब दौर शुरू हुआ हमारे लिखने का। शाम को घर में लिखने की कोशिश की, तो मुन्ने ने कागज़ का एरोप्लेन बना दिया । और मुन्नी यह कह कर रोने लगी कि “पापा ने मेरी नई पेंसिल चुराई।” 

बच्चों को किसी तरह चुप कराया। श्रीमतीजी की फटकार भी सुनी कि, “बस ! आप तो यूं ही हैं। कुछ भी नहीं कर सकते।”   फिर रात को लिखने की कोशिश की।

इंस्पिरेशन आने वाला था कि मुन्ने को पहले ही सुस्सु आ गया। आईडिया आया ही था कि मुन्नी जाग गयी और पानी मांगने लगी।

क्या बताएं, रात के बारह बजे तक कोरा कागज़ कोरा ही रह गया। 

सुनना भी पड़ा।

“अजी सो भी जाईये। सवेरे ऑफिस जाने से पहले आटा आपने पिसवा के लाना हैँ ।”

फिर ऑफिस में लिखना शुरू किया। हफ्ते भर कोशिश की। उसके बाद ऑफिस के पियन  ने साफ मना कर दिया कि वह रोज़ रोज़ मेरी वेस्ट बास्केट से मनों कूड़ा नहीं उठाएगा।

बड़े बाबु ने भी कह दिया “ऑफिस का कागज़ ऑफिस के काम के लिए होता है। इतने कागज़ से क्या बच्चों के स्कूल की कापियां बना रहे हो?”

बौस महोदय लेकिनअसमंजस में थे। हमारे जैसा मस्तमौला दिन भर अपनी सीट पर दीखता था। लंच ब्रेक में भी! और फाइल टस से मस न होती । जब हमें लगा कि नोकरी से भी हाथ धोने पड़ेंगे, तो कान पकड़े। ऑफिस में लिखना छोड़ा।

अब तो हम ढूंढ रहे हैं उस ऐ आई आर के अफसर को। 

अगर उसको मेरी और अपनी जान बचानी है तो वो ही कोई अच्छा सा लेख लिख दे। श्रीमतीजी उस लेख को ऐ आई आर पर वार्ता के रूप में पढ़ कर सुनाएं। अपनी आवाज़ सुनें। उन के मन को तसल्ली मिले। मेरी जान बचे।

और हमारे घर और ऑफिस की शान्ति पूनःस्थापित हो।