कन्हैयालाल जी को चाहें कोई भला बुरा कुछ भी कहता, यह कोई नहीं कह सकता था कि वह बुरे थे अध्यापक। ना जी ना। कत्तई नहीं।
जहां बुज़ुर्ग उन्हें पंडितजी बुलाते थे, हम विद्यार्थी उन्हें कहते थे माटसाब । वह हिन्दी के प्रगाढ़ पंडित थे और साथ में थे बड़े सख्त। एक बार जो बात समझा देते थे, मजाल है कि कोई वह बात भूल पाता इस ज़िन्दगी में।
एक बार उन्होंने हम सब को लेख लिखने का दिया होमवर्क, जिसे हम कहते थे गृहकार्य। बाकी बच्चों ने वही घिसी पिटी तरह लिखा, लेकिन हमने लिखा एक फड़कता हुआ निबन्ध। हम ने भाषा का नए ढंग से किया था प्रयोग और हमारा अनुमान था कि माटसाब को नयी शैली आएगी पसन्द।
लेकिन हाय! नहीं अाई पसन्द। नापसन्द ही नहीं, माटसाब तो हो गए आगबबूला!
” बकवास! ये कोई तरीका है लिखने का? क्रिया कहां है, क्रिया? बेवकूफ! भूल जाते हो हमेशा! हिन्दी में वाक्य के अन्त में न संज्ञा होगी, न सर्वनाम न और कुछ। होगी सिर्फ और सिर्फ क्रिया!”
अब इस तरह की बात हम कैसे मान लेते और वह भी आसानी से ?
हम ने भी पूछा सवाल। “माटसाब, माटसाब! आपकी बात हमें लगती है तर्कहीन। फिल्मों के गानों के बारे में कभी सोचा आपने? जैसे कि ‘है अपना दिल तो आवारा‘ ; ‘ ये रात भीगी भीगी ‘, ‘मेरा जूता है जापानी‘ ; ‘मेरे पिया गए रंगून‘ ; ‘जागो मोहन प्यारे‘ और न जाने कितने और। आप ही बताइए कि वाक्य के अन्त में क्रिया है कहां ? किसी वाक्य के अंत में संज्ञा है, किसी में विशेषण तो किसी में क्रिया विशेषण!”
माटसाब को आ गया गुस्सा। लगे चिल्लाने ज़ोर ज़ोर से। “बेशरम! गधा! बदतमीज! निकल जाओ क्लास के बाहर। अभी!”
लेकिन हम ठहरे पृथ्वीराज चौहन के वंशज! पीछे हटना तो हम जानते ही नहीं।
” माटसाब, एक पत्रिका है धर्मयुग। और एक है साप्ताहिक हिंदुस्तान। दोनों में सभी लेखों के शीर्षक में या तो जुम्लेबाजी होती है, या होती है तुकबंदी। ऐसी ही पत्रिकाओं से तो हमें भाषा के बोलचाल वाले रूप का होता है ज्ञान!”
“बेवकूफ! ओंधी खोपड़ी वाले!” माटसाब ने आव देखा न ताव; कनपटी पर रसीद दिए तीन चार। हम थे तो दुखी, किन्तु रहे चुप के चुप।
और फिर माटसाब ने समझाया कि कविता और फिल्मी गाने ठीक है अपनी जगह, लेकिन बाकी भाषा के होते हैं नियम । ये भी समझाया कि ज़रूरी नहीं कि भाषा क्लिष्ट हो, या प्रयोग में लाए जाएं केवल शुद्ध हिन्दी के शब्द। लेकिन वाक्य का रूप तो होना चाहिए व्याकरण के अनुसार! इसी सिलसिले में क्रिया का महत्व समझाते हुए माटसाब ने श्राप दे डाला ऐसी पत्रिकाओं को जो ऊटपटांग शीर्षक में रखती हों विश्वास। साथ में लंबा भाषण भी दिया, जिसमें उन्होंने गिना दीं क्रिया की विशेषताएं, धातु, भेद, अकर्मक, सकर्मक क्रिया और पता नहीं क्या क्या।
ज़्यादा तो पल्ले पड़ा नहीं, लेकिन जो बात समझ अाई वह गांठ बांध ली हमने। और वह थी कि अंग्रेज़ी मे भले ही क्रिया कहीं भी चेप दो, हिंदी में क्रिया आती है वाक्य के अंत में। न आरंभ में, न बीच में। केवल अंत में। और शायद इस मूल मंत्र की अव्हेलना करने के कारण ही दिवालिया निकल गया होगा धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान का! दोनों पत्रिकाएं न जाने कितने साल पहले हो चुकी हैं बन्द।
समय तो आखिर है समय। अच्छा बुरा जैसा भी हो, जाता है गुज़र। होते होते हम बड़े हो गए और अब बूढ़े। माटसाब भी चल बसे कई साल पहले। उनकी याद कभी कभी आयी तो ज़रूर, क्योंकि ज़िन्दगी भर उनके बताए क्रिया के प्रयोग के नियमों का हमने पालन किया अच्छे से। कभी भी किसी को मौका नहीं दिया कि वह उंगली उठाए हमारे हिन्दी के ज्ञान या निपुणता पर।
लेकिन अब बुढ़ापे में दोबारा सोचना पड़ रहा है कि क्या हमारा विश्वास सही है या नहीं। क्या वास्तव में क्रिया वाक्य के अन्त में ही आती है, कल, आज और हमेशा ? हमारी छोटी सी पोती, मुनिया, ही है जिसने हमें डाल दिया है इस असमंजस में।
अभी कल परसों की है ये बात। मुनिया भागी भागी अाई और बड़े प्यार से कहा, ” दादाजी! दादाजी! अभी जो हिन्दी पखवाड़ा चल रहा है उस पर ये है मेरा निबन्ध!”
हम ने देखा उसका लेख। सभी कुछ टेढ़ा तिरछा! खास तौर से क्रिया का प्रयोग – या तो वाक्य के बीच में या बिल्कुल नदारद। कभी यहां, तो कभी वहां। हमें मालूम है कि मुनिया हर बात को सोचती है अंग्रेज़ी में और लिखती है हिन्दी में। इसी लिए क्रिया कभी यहां और कभी वहां। हम को तो माटसाब का पढ़ाया हुआ सबक अच्छे से है याद। बता दिया मुनिया को कि ये सारा का सारा है त्रुटिपूर्ण। “क्रिया न वाक्य के शुरू में होती है न बीच में, वह तो आती है वाक्य के अंत में। लिख कर लाओ दोबारा!”
लेकिन वह नहीं मानी, आखिर है तो हमारी पोती। बोली, “मैंने तो दादाजी आज कल के स्टाइल में लिखा है सब कुछ। आप को विश्वास न हो तो देख लीजिए न खुद ही।“
हाथ पकड़ कर ले गई टी वी के सामने। और एक के बाद एक कई टी वी सीरियल के गिनवा दिए नाम। ‘ये रिश्ते हैं प्यार के‘; पता नहीं किसका उल्टा चश्मा ‘, ‘जादू जिन्न का‘; ‘साथ निभाना साथिया’ और ‘कौन बनेगा करोड़पति‘!
सभी में व्याकरण की बेलज्जा अव्हेलना और कई एक में तो क्रिया का बोध ही नहीं!
मुनिया ने और जो बताया उससे हमें लगा कि ये बीमारी तो बॉलीवुड मैं भी गई है फैल। एक शब्द के नाम वाली फिल्मों को छोड़ कर, जिस फिल्म को देखो, उसका नाम ही है या तो अशुद्ध या भ्रांतिपूर्ण। जैसे ‘हम आपके हैं कौन‘, ‘ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा‘ आदि। और तो और, एक फिल्म का नाम था ‘तू ही मेरा सन्डे‘ ! बिल्कुल बेतुका!
फिर हमारी मुनिया ने दिखाए टी वी वाले समाचार। सब सुर्खियां रोचक और तुकबंदी वाली या धमाकेदार! किन्तु एक में भी क्रिया का सही प्रयोग नहीं! हम स्तब्ध से देखते रह गये सारी सुर्खियों को – ‘शारजाह में घमासान‘, ‘किसानों को होगा कितना फायदा ‘ , ‘ बेल के पहले होगईं बेनकाब ‘, ‘ डूब गई महानगरी‘, ‘लोक सभा का सत्र समाप्त‘, ‘ महंगाई ने बिगाड़ा रसोई का स्वाद‘; ‘बिल से श्रमिकों के अधिकारों पर चलेगी कैंची‘!
अरे भाई, व्याकरण जैसी चिड़िया का नाम सुना है कभी?
हमारा तमतमाया हुआ चेहरा देख कर हमारी पोती ने कुछ पाक कला अर्थात कुकरी शो की ओर किया इशारा। इन चैनलों की हिन्दी तो थी और भी माशाअल्लाह! “एक स्पून ऑयल ले कर डालें पैन में!” या फिर “वेजिटेबल्स को डाइस करने के बाद सौट कर लें और फिर होने दें कूल।” “टमाटर कट करें और बॉयल होने के बाद करें स्ट्रेन!” हो मोरे रामा अजब तोरी दुनिया!
बहुत कुछ देखा टी वी में – सुर्खियां, शीर्षक, विज्ञापन। सभी में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तो थे, लेकिन क्रिया का नाम ही नहीं। और अगर क्रिया कहीं थी भी, तो छुपी सी, शर्माई सी; कहीं वाक्य या सुर्खियों के बीच में! ऐसा प्रतीत हुआ मानो धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान संजीवनी पीकर फिर आ गए हों धरती पर! अच्छा ही हुआ कि हमारे बेचारे माटसाब गुज़र गए कई साल पहले। वर्ना आज के इस युग की हिन्दी, और खासकर क्रिया के प्रयोग करने के तरीके को देखकर तो उनका टूट ही जाता दिल। या वह कर लेते आत्महत्या!
कहां से कहां आ गई है हमारी भाषा? अभी हाल ही में तो भारत सरकार ने मनाया था ‘हिन्दी दिवस‘ और अब चल रहा है हिन्दी पखवाड़ा। कुछ मामला जमा नहीं। इसीलिए सब मिल कर लगाओ नारा – हिन्दी पखवाड़े का बोलबला! चाहे होता रहे हिन्दी का मुंह काला!