घोर कलयुग

 

जब हम छोटे थे,  ज़माना कुछ अलग था। पढ़ाई लिखाई भी अलग थी। आधी घर में, आधी स्कूल में। और कुछ स्कूल और घर के बीच में आते जाते। स्कूल में न कभी किसी बात का डर, न किसी बात का रोना। बस, बाबूजी से फीस के पैसे लिए, जमा किए और हो गया काम।

न मां कभी स्कूल आईं, और न ही कभी बाबूजी को फुर्सत मिली।

जब साल ख़त्म होता, तो हम सब को बता देते कि पास हो गए। उस सतयुग में परसेंटेज तो दूर, कभी किसी ने  डिवीजन तक नहीं पूछी।

” बेटा पास हो गया! बेटा पास हो गया!” का शोर होता और सारे मुहल्ले में लड्डू बांटे जाते। कभी कभी तो ये खुशखबरी जलगांव वाली बुआ और रामपुर वाले मामाजी को भी पोस्टकार्ड द्वारा पहुंचाई जाती।

लेकिन स्कूल की पढ़ाई से ज़्यादा, जो हम  घर में सीखते थे उसकी अहमियत थी।

बड़ो का आदर करना। तमीज़ से बात करना। सोच समझ कर पैसे खर्च करना। साफ सुथरे कपड़े पहनना। सच बोलना। उधार नहीं लेना। झूठी शान से दूर रहना। अपने परिश्रम से पैसे कमाना। किसी भी तरह का ढोंग नहीं करना।

इन सब विषयों की न तो कोई किताब थी, न सिलेबस।  न ही कभी क्लास लगी और न ही होमवर्क मिला। लेकिन कभी अगर एक भी सबक याद नहीं हुआ तो मां अच्छे से समझा देती थीं। और अगर फिर भी कोई सबक याद नहीं होता, तो बाबूजी तो बहुत ही अच्छी  तरह समझा देते थे!

जब तक हमारे बच्चे स्कूल जाने लायक हुए, ज़माना बदल गया था। घर में तो हमने भी अपने बच्चों को ज़िन्दगी के ज़रूरी सबक पढ़ाए, लेकिन ये स्कूल वाले,  वजह बेवजह, बच्चे की पढ़ाई के बारे में बात करने के लिए हमें स्कूल बुलाने लगे।

अरे भाई, फीस भर तो दी! अब पढ़ाने का काम तुम्हारा है! हमें क्यों बार बार बुलाते हो? कभी पी टी ए के बहाने, तो  कभी ड्रामा तो कभी पी टी शो। क्या मां बाप को और कोई काम नहीं होता? हमनें सोचा, “कलयुग आ गया है, रीत बदल लो।”

बदलते ज़माने के हिसाब से हमने अपनी रीत बदल ली। जब जब हमारे बच्चों की टीचरजी ने बुलाया, हमने जा कर स्कूल में हाज़िरी लगाई।

लेकिन भला अब बुढ़ापे में क्यों स्कूल जाएं?  अजी कलयुग आ गया है, कलयुग!

ये स्कूल वाले बच्चों के मां बाप को तो बुलाते ही हैं, नाना नानी, दादा दादी को भी लपेट लेते हैं! कभी ग्रैंडफादर डे कह कर तो कभी सीनियर्स डे कह कर।

अगर मालूम होता कि स्कूल से पास होने के बाद भी स्कूल जाना पड़ेगा, तो हम तो शुरू में ही स्कूल न जाते!

एैसे ही एक ग्रैंड पेरेंट्स डे में मैं और मेरी घरवाली, दोनों को कुछ महिने  पहले नाना नानी की हैसियत से स्कूल जाना पड़ा। बहुत बोर हुए, लेकिन क्या करते? मुन्नी की मुनिया, मतलब हमारी धेवती , का मन रखने का सवाल था। 

तीन चार घण्टे का प्रोग्राम । न पान थूकने की जगह न सिगरेट की कोई दुकान। टीचर लोग अलग अंग्रेज़ी में गिट पिट किए जा रही थीं। कुछ तो समझ आया लेकिन डर था कि कोई ज़रूरी बात न छूट जाए।  झेंप भी आ रही थी कि मुनिया जब पूछेगी “प्रोगराम कैसा लगा?”, तब ये तो नहीं कह सकते हैं कि कुछ ज़्यादा समझ नहीं आया?

यही सोच कर मैंने इधर उधर देखा और एक तरकीब निकाली। पास में खड़े एक सूटेड बूटेड बुज़ुर्ग से मैंने कहा,  “मैं दादा हूं।”

उसने कहा, ” आप जरूर  होंगे, क्योंकि स्कूल में ‘दादा दादी डे’ के लिए चचा लोग को तो कोई नहीं बुलाता।”

मैंने फिर दोहराया, “दादा हूं। दरियागंज का!”

टाई धारी को अब बात समझ में आई। झट से उसने अपना बटुआ जेब से निकाल कर दे दिया।

” नहीं जनाब, आप गलत समझे,” मैंने कहा। “मैं दरियागंज का दादा हूं तो मैंने इसलिए कहा कि आप मेरी बात मानने से इंकार न करें।”

” जी बोलिए,” उसने कहा।

कुछ लजाते हुए मैंने कहा, “ये जो टीचर गिट पिट कर रहीं है, वह मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा है। आप मेरे साथ ही रहिए। कोई काम की बात हो तो हिंदी में मेरे को बता दीजिएगा।”

बच्चों का प्रोग्राम बहुत देर तक चलता रहा। सब अंग्रेजों की औलाद, अंग्रेज़ी में पता नहीं क्या क्या बतियाते रहे। हमारे साथ जो टाईधारी बुज़ुर्ग थे, वह हमें हिंदी में समझाते रहे। कई बार लगा कि वह कुछ गलत बता रहे हैं, लेकिन यह सोच कर मैं चुप रहा कि टाई पहनी है तो सही ही बता रहे होंगे।

प्रोग्राम ख़त्म हुआ तो ओपचारिकतावश मैंने पूछ लिया, “मेरी मारुति कार यहीं है। आप को कहीं छोड़ सकता हूं क्या?”

उन सज्जन का जवाब सुन कर मैं तो दंग रह गया।

बड़े अंदाज़ से उन्होनें कहा, “न जी न। हमारी चार चूड़ी ले कर डिलैवर अभी आ जाएगा।”

चार चूड़ी? मैं और मेरी बीवी काफी असमंजस में थे कि ये चार चूड़ी क्या बला है। तभी उनका ड्राइवर कार ले कर आ गया। ये तो मेरे को भी अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में मालूम था कि इस कार का नाम  ऑडी होता है। अब समझ में आया कि हमारे टाईधारी अनुवादक का ‘चार चूड़ी’ से तात्पर्य उनका अपनी ऑडी कार से था।

साथ ही समझ आ गया कि भाई साहिब को अंग्रेज़ी का अलिफ बे पे भी नहीं आता! और जो ये जनाब हमें प्रोग्राम के बारे में हिंदी में बताते रहे, वह सब बंडलबाजी था! 

“तो आप भी अंग्रेज़ी में….” मैं हैरानी से उन्हें तकता रह गया।

“जी हां, खा गए न आप भी धोखा? मैं तो बिल्कुल अनपढ़ हूं। लेकिन ये टाई और सूट मैं अब हमेशा पहनता हूं। बड़े काम की चीज़ हैं। दो साल पहले, हाई वे वालों ने सड़क बनाने के वास्ते मेरे खेत खरीद लिए थे। बढ़िया पैसे मिले, और उन से मैंने एक कोठी, दो मरसरी की गाड़ी और एक चार चूड़ी खरीद ली। और ढ़ेर सारी टाईयां । अब तो मैं भी साहब बना फिरता हूं।”

और वो टाईधारी धोखेबाज़ अपनी चार चूड़ी में सवार हो कर चल दिया । ‘डिलैवर’ के साथ!

उस दिन को याद कर के मैं और मेरी घरवाली अब अक्सर ये बातें करते हैं – “हमने भी टाई पहनी होती तो ऐसा होता। हमने भी टाई पहनी होती तो वैसा होता।”

क्योंकि आज वही ज्ञानी है जिसके पास चार चूड़ी और चार टाई हैं। हाय कैसा कलयुग आ गया है! घोर कलयुग!!