छब्बीस जनवरी
कहीं से इक कराड लाये, हाथ पैर जोरे।
गरम बिस्तर छोर उठे, सवेरे सवेरे।
पैदल चल कर जूता घिस्यो, धक्का मुक्का खाये।
जगै पाने जल्दी पहुंच्यो, घंटन यूं बिताये।
भीर थी लाखन वहां, कुचरो अपनो पाँव।
सभै लोगां धक्का मारें, कैसो है ये गांव ?
फिर तो मेला सुरु हुयो, लोगाँ बोलें अच्छो है।
हमको तो कुछ दीखत नाहीं, पुलिस का पहरो रखो है।
आज से हम खायें कसम, राम ही बचाये
जो आगे कोई दिन, हमको यूं नचाये।
टोपी गयी, कोट गयो, अंगोछन भी छूट गयो।
सिर फूट्यो भीर में ओर हाथ पैर टूट गयो ।
आगे हम कभी भी, ऐसे अब न जाएं
जाएं भी तो तबन ही, जब परसिडेंट हो जाएं।
Written years ago – When it was possible to ‘borrow’ a card for witnessing the parade and Kaka Hathrasi was the gold standard of light poetry!