सर का सफर

स्कूल में यार दोस्त हमेशा तू तड़ाक कर के बात करते थे। कॉलेज में भी कुछ ऐसा ही चलता रहा। मेरा नाम संबोधन कारक में “अबे!” और “ओए!” के अलावा कभी कुछ नहीं रहा। अगर किसी को बहुत ही प्यार आ रहा होता तो वह अपने राम को घोंचू कह कर बुलाता था।

लेकिन कॉलेज ख़त्म होने के साथ ही नौकरी लग गई। यकायक सब मुझे साहब और ‘सर’ कहने लगे। कई एक जूनियर तो मेरे से उम्र में काफी बड़े थे। वह भी मेरे को ‘सर’ ‘सर’ करते थे। ज़िन्दगी भर तो मैंने सिर्फ अपने अध्यापकों को ‘सर’ बोला था। अपने आप को ‘सर’ के रूप में देखने में बड़ा अटपटा लगा। कभी कभार सड़क चलते कोई “नमस्ते ‘सर’ ” कहता तो में पीछे मुड़ के देखता कि कौन से प्रोफेसर साहब आ रहे हैं।

थोड़ी शर्म तो ज़रूर आती है खुद कहने में लेकिन अपनी जवानी में मैं भी दिखने में बुरा नहीं था। तेईस चौबीस साल की उम्र में इकहरा बदन होने के नाते, मेरी उम्र के बारे में अच्छे अच्छों को गलतफहमी हो जाती थी। कोई सत्रह का समझता, तो कोई अठारह का।

इतनी ही उम्र में मैंने एक सब डिविजन में कार्यभार संभाला था । एक दिन दोपहर में मुफ्ती में अपने दफ्तर में बैठा था। एक नेताजी टाइप ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और मेरे पर बरस पड़ा। ” शर्म नहीं आती? अपने पिताजी की कुर्सी में बैठा है? जल्दी से बुला साहब को, मेरे पास ज़्यादा टाइम नहीं है।”

कई बार बताया कि मैं ही साहब हूं, पर वह मानने को तय्यार ही नहीं था। “नाहक में क्यों परेशान करता है बउआ! बुला दे ना अपने पिताजी को।”

एक बार तो मुझे खुद गलतफहमी हो गई। एक दिन जब में घर के सामने छोटे से बागीचे में अख़बार पढ़ रहा था, एक महाशय मेरे घर सवेरे सवेरे पहुंचे । उन्होंने गेट से ही पूंछा ” वर्मा साहिब हैं क्या?”

मुझे खुद ‘साहब’ बने कुछ एक महिने ही हुए थे और ज़िन्दगी भर “वर्मा साहिब” संबोधन सिर्फ अपने पिताजी के लिए सुना था। बिना कुछ सोचे, कह दिया, ” नहीं वर्मा साहिब तो नहीं है। मैं उनका लड़का हूं, बताएं क्या काम है?”

बाद में उन महोदय को ये बात समझाने में काफी वक्त लगा कि वास्तव में जिन वर्मा साहब को वह खोज रहे थे वह मैं ही था।

तो इस तरह कॉलेज से निकलते ही मैं साहब और सर बन गया। वह जो अफसरशाही वाले साहब और सर के सरोवर में डुबकी लगाई, उससे निकलने में चालीस साल लग गए।

इन चालीस सालों में वह इकहरा बदन कब दोगुना या तीनगुना हो गया, मालूम ही नहीं पड़ा। बदन बदल गया सो बदल गया, ये भी पता नहीं चला कि बालों की सियाही और पांच छः दांत कहां गायब हो गए। दिखाने को रह गए ये झूके हुए कंधे और बेल्ट की कैद से भागती सी ये तोंद।

रिटायर होने के बाद, मैं और मेरी बीवी एक ‘सोसायटी’ में रहने लगे हैं। यकायक जैसे में साहब और सर बना था, उतनी ही फुर्ती से मैं अंकल और बाबाजी बन गया हूं। छोटे बड़े, आस पास के घरों के लोग सब मेरे को अंकल बुलाते हैं। और मेरी बीवी को आंटी। कभी कभार, एक पुराने खिज़ाब के एडवरटाइजमेंट की तरह, मेरे को अंकल और बीवी को दीदी कह कर मेरे सफेद बालों का मज़ाक उड़ाते हैं।

कोने के घर में एक अधेड़ उम्र के रिटायर्ड बाबू है जो लगभग मेरी उम्र के ही होंगे। वह तो मेरे को हमेशा अंकल बुलाते हैं, और मेरी पत्नी को दीदी। अपने छोटे पोते से कहते हैं “दादाजी के पांव छुओ। दीदी को नमस्ते बोलो।”

तबीयत कोफ्त तो होती है, लेकिन क्या करूं? यह तो कह नहीं सकता कि इन को दीदी नहीं, दादी पुकारो।

कभी कभी सोचता हूं वह दिन मैंने क्यों नहीं देखे जब कोई मेरे को भी भाई साहब, या बन्धु या कॉमरेड बुलाता। कोई तो होता जो कहता ” यार”, या “जाने भी दो यार।” मैंने तो अपने लिए वो प्यार भरे शब्द – दाज़ू, दादा, मोटा भाई या अन्ना – कभी नहीं सुने। मैं तो किसी से ‘चचा’ सुनने को भी तरस गया, क्योंकि यार दोस्त ही चचा बुला सकते हैं, और यार दोस्त कॉलेज छोड़ने के बाद कभी हुए नहीं।

कभी कभी मन करता है दफ्तर का ही एक चक्कर मारा जाए। लोग ‘ सर’ बोलें या साहब, इस अंकल और बाबाजी की उपाधि से तो कुछ समय के लिए छुटकारा मिल जाएगा। फिर यही सोच कर नहीं जाता की बाहर खड़े संतरी ने “ए बुड्ढ़े” कह कर रोक दिया तो मैं कहां मुंह छिपाऊंगा ?